जंगल का अकेला कानून यही है कि इस जगह का कोई कानून नही है
बहती है नदी एक सबके करीब से , नदीयों पर चला हक भला कभी किसका है ?
और जो बसर हैं करतें पानी में इसके अन्दर , उनके भी पेट के इंतजाम सभी है ।
है कौन किसका दुश्मन ये सबको खबर है , हिरणों का पता है कहाँ घात लगी है ।
सब रहते हैं इकठ्ठे अपने हिसाब से , सबका धर्म जो सोचो बस जिन्दगी ही है ।
कुछ गांव जो बसे हैं जंगल के थोडा बाहर , उनमे भला क्यूँ देखो ये आग लगी है ।
जंगल में रहने वाले ये सोचते होंगे , कोई जानवर बडा क्या इंसान से भी है ।
ये सिरफिरे शिकारी शहरों मे रहने वाले , कानून की दफ़ाएं क्यूँ इनमें बनी है ?
है किस दिशा मे चलना ? और कब कहाँ है रुकना ? जितनी भी है जरूरी सब बातें लिखीं है ।
फिर क्यूँ अंधेरे जंगल शहरों में छिपे हैं , इंसानियत वहाँ क्यूँ मिट्टी में मिली है ?
हमको है पेट भरना हमें इतना पता है , इंसान को वहाँ पर क्या भूख लगी है ?
अरे इनका क्या भरोसा कल क्या से क्या हों जाएं , इन शहरों के मुकाबिल जंगल ही सही है ।
जंगल अकेला कानून यही है कि इस जगह का कोई कानून नही है!
This is a simple reminder to be mindful that ‘We are all humans’. We are Flesh and Blood, we do not hurt each other. We do not judge each other. We must make ourselves aware of any inner conflicts we may have with others, conscious or not. We have to let go of the thoughts about dominating and leading the life cycle chain. It's not about survival of the fittest always!
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